सोच अपने ज़हन में हरदम रहे
भ्रष्ट ही क्यों कुर्सियों पर जम रहे
हर मुसीबत का किया है सामना ,
हौंसले कब आदमी के कम रहे
खा गई क्यों आग सारे शहर को,
ज़ुल्म कुदरत के नहीं क्यों थम रहे
काट कर जंगल बना दीं बस्तियां ,
किस तरह कुदरत कहो हमदम रहे
तुम किसी के वास्ते जीते नहीं,
जिंदगी फिर किस तरह सरगम रहे
तू अगर आँसू किसी के पोंछ दे ,
तो जमाने में भला क्यों ग़म रहे
ठोकरें खाई मगर संभले नहीं,
बस खुदा खुद को समझते हम रहे
बस खुदा खुद को समझते हम रहे