सोच अपने ज़हन में हरदम रहे
भ्रष्ट ही क्यों कुर्सियों पर जम रहे
हर मुसीबत का किया है सामना ,
हौंसले कब आदमी के कम रहे
खा गई क्यों आग सारे शहर को,
ज़ुल्म कुदरत के नहीं क्यों थम रहे
काट कर जंगल बना दीं बस्तियां ,
किस तरह कुदरत कहो हमदम रहे
तुम किसी के वास्ते जीते नहीं,
जिंदगी फिर किस तरह सरगम रहे
तू अगर आँसू किसी के पोंछ दे ,
तो जमाने में भला क्यों ग़म रहे
ठोकरें खाई मगर संभले नहीं,
बस खुदा खुद को समझते हम रहे
बस खुदा खुद को समझते हम रहे
बहुत ही सुंदर गजल...सत्य का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती हुई...लाजवाब।
ReplyDeleteapp ka bhut bhut shukriya jnaab.
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